न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और कदाचार की घटनाओं से जनता का विश्वास कमजोर होता है: न्यायमूर्ति गवई

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नई दिल्ली, बुधवार, 05 जून 2025। प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) बी आर गवई ने कहा है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और कदाचार की घटनाओं से जनता के भरोसे पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिससे पूरी व्यवस्था की शुचिता में विश्वास कम हो सकता है। ब्रिटेन के उच्चतम न्यायालय में ‘मेंटेनिंग जूडिशयल लेजिटिमेसी एंड पब्लिक कॉन्फिडेंस’ विषय पर आयोजित एक गोलमेज सम्मेलन में उन्होंने न्यायाधीशों द्वारा सेवानिवृत्ति के बाद की जाने वाली नौकरियों के बारे में भी बात की। उन्होंने कहा कि अगर कोई न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद सरकार में कोई अन्य नियुक्ति प्राप्त करता है, या चुनाव लड़ने के लिए पीठ से इस्तीफा देता है तो इससे ‘‘गंभीर नैतिक चिंता पैदा होती है।’’ भ्रष्टाचार के मुद्दे पर प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि जब भी भ्रष्टाचार और कदाचार के ये मामले सामने आए हैं, उच्चतम न्यायालय ने लगातार कदाचार को दूर करने के लिए तत्काल और उचित उपाय किए हैं।

उन्होंने कहा, ‘‘इसके अलावा, हर प्रणाली, चाहे वह कितनी भी मजबूत क्यों न हो, पेशेवर कदाचार के लिहाज से अतिसंवेदनशील होती है। दुख की बात है कि न्यायपालिका के भीतर भी भ्रष्टाचार और कदाचार के मामले सामने आए हैं। ऐसी घटनाओं से जनता के भरोसे पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिससे पूरी प्रणाली की शुचिता में विश्वास खत्म हो सकता है।’’  प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘हालांकि, इन मसलों पर त्वरित, निर्णायक और पारदर्शी कार्रवाई करके ही इस विश्वास को फिर से कायम किया जा सकता है। भारत में जब भी ऐसे मामले सामने आए हैं तो उच्चतम न्यायालय ने लगातार कदाचार से निपटने के लिए तत्काल और उचित उपाय किए हैं।’’ प्रधान न्यायाधीश की यह टिप्पणी इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा पर भ्रष्टाचार के आरोपों की पृष्ठभूमि में आई है। वर्मा के दिल्ली स्थित आधिकारिक आवास से बड़ी मात्रा में नकदी बरामद की गई थी।

न्यायमूर्ति गवई ने कहा कि प्रत्येक लोकतंत्र में, न्यायपालिका को न केवल न्याय प्रदान करना चाहिए, बल्कि उसे एक ऐसी संस्था के रूप में भी देखा जाना चाहिए जो सत्ता के सामने सच्चाई को रख सकती है। उन्होंने कहा कि ‘‘न्यायिक वैधता’’ और ‘‘जनता का विश्वास’’ शब्द आपस में जुड़े हुए हैं। सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों की सरकारी नियुक्ति अक्सर बहस का मुद्दा बनी रहती हैं, इस पर प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि सेवानिवृत्ति के बाद की ऐसी नियुक्तियों का समय और प्रकृति न्यायपालिका की शुचिता में जनता के विश्वास को कमजोर कर सकती है, क्योंकि इससे यह धारणा बन सकती है कि सरकारी नियुक्तियों या राजनीति में आने से लिए संभवत: न्यायिक निर्णय लिया गया।

उन्होंने कहा, ‘‘चर्चा का एक और मुद्दा सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों की नियुक्ति है। भारत में, न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु निश्चित है। यदि कोई न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद सरकार में कोई अन्य नियुक्ति प्राप्त करता है या चुनाव लड़ने के लिए पीठ से इस्तीफा देता है तो यह गंभीर नैतिक चिंताएं पैदा करता है और इससे लोगों का ध्यान आकर्षित होता है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘इसी को देखते हुए मेरे कई सहयोगियों और मैंने सेवानिवृत्ति के बाद सरकार से कोई भूमिका या पद स्वीकार न करने की सार्वजनिक तौर पर प्रतिज्ञा की है। यह प्रतिबद्धता न्यायपालिका की विश्वसनीयता और स्वतंत्रता को बनाए रखने का एक प्रयास है।’’

प्रधान न्यायाधीश गवई ने उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम प्रणाली को भी उचित ठहराया और कहा कि 1993 तक, उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति में अंतिम निर्णय कार्यपालिका का होता था। उन्होंने कहा, ‘‘इस अवधि के दौरान कार्यपालिका ने दो बार सीजेआई की नियुक्ति में वरिष्ठतम न्यायाधीशों को दरकिनार कर दिया जो स्थापित परंपरा के विरुद्ध है।’’ प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि कॉलेजियम प्रणाली का उद्देश्य कार्यपालिका के हस्तक्षेप को कम करना और नियुक्तियों में न्यायपालिका की स्वायत्तता को बनाए रखना है। उन्होंने कहा, ‘‘कॉलेजियम प्रणाली की आलोचना हो सकती है, लेकिन कोई भी समाधान न्यायिक स्वतंत्रता की कीमत पर नहीं आना चाहिए। न्यायाधीशों को बाहरी नियंत्रण से मुक्त होना चाहिए।’’

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