सिर्फ इसलिए कि न्यायाधीश बदल गए हैं, फैसलों को खारिज नहीं किया जाना चाहिए: न्यायमूर्ति नागरत्ना

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सोनीपत/नई दिल्ली, रविवार, 30 नवंबर 2025। उच्चतम न्यायालय की न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी वी नागरत्ना ने शनिवार को कहा कि उच्चतम न्यायालय के फैसलों को सिर्फ इसलिए ‘‘खारिज’’ नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि उन्हें लिखने वाले न्यायाधीश बदल गए हैं। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि न्यायिक स्वतंत्रता और कानून की सर्वोच्चता मिलकर यह सुनिश्चित करती है कि किसी भी समय मौजूद राजनीतिक दबाव के कारण कानून का शासन कमजोर नहीं होगा। उन्होंने कहा, ‘‘न्यायाधीशों को राजनीतिक और बाहरी प्रभाव से बचाना इस उद्देश्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसलिए, ये दोनों अवधारणाएं विधि के शासन के लिए महत्वपूर्ण आधार हैं, जिन्हें कमतर नहीं आंक सकते हैं।’’

न्यायमूर्ति नागरत्ना ने ये विचार सोनीपत स्थित ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में ‘न्यायपालिका की स्वतंत्रता: अधिकारों, संस्थाओं और नागरिकों पर तुलनात्मक दृष्टिकोण’ विषय पर आयोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए व्यक्त किये। इस अवसर पर, विश्व की सबसे बड़ी नकली अदालत ‘न्यायभ्यास मंडपम’ का उद्घाटन किया गया। साथ ही, वकालत, बातचीत, विवाद न्यायनिर्णयन, मध्यस्थता और समाधान के लिए अंतरराष्ट्रीय मूटिंग अकादमी (‘ईमानदार’) का भी उद्घाटन किया गया। न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा कि कानून का शासन दोहरे विश्वास पर आधारित एक दृष्टिकोण है।

उन्होंने कहा, ‘‘कानूनी बिरादरी और शासन व्यवस्था से जुड़े सभी लोगों का यह कर्तव्य है कि वे फैसले का सम्मान करें। अगर कोई आपत्ति हो तो उसे कानून में तय परंपराओं के अनुसार ही उठाएं, और सिर्फ इसलिए फैसले को खारिज करने की कोशिश न करें कि अब चेहरे (अधिकारियों/पदाधिकारियों) बदल गए हैं।” उन्होंने कहा, ‘‘पहला, भारत के संविधान में विश्वास, जो लोकतांत्रिक विधानमंडलों को भी बाध्य करता है। ऐसे उच्चतर कानून की मुख्य विषय-वस्तु अत्याचारों के विरुद्ध व्यक्तिगत अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा करने वाले मानदंड हैं।’’

शीर्ष अदालत की न्यायाधीश ने कहा, ‘‘दूसरा, न्यायालयों में विश्वास, चाहे वे संवैधानिक हों या सामान्य, सर्वोच्च हों या नियमित क्योंकि वे स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से ऐसे उच्च कानून की प्रभावशीलता और प्रवर्तन के लिए सबसे अहम गारंटी हैं।’’ न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा, ‘‘यह दोहरी आस्था ही है जो स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका द्वारा न्यायिक समीक्षा को कानून के शासन की अवधारणा की पहचान के रूप में मान्यता देती है।’’ उन्होंने कहा कि कानून के शासन द्वारा संचालित लोकतंत्र में न्यायिक समीक्षा का महत्व न्यायिक स्वतंत्रता में नई परतें जोड़ता है तथा इस आवश्यकता को और अधिक बाध्यकारी बनाता है। न्यायमूर्ति नागरत्ना ने 1973 के प्रसिद्ध केशवानंद भारती मामले का उल्लेख करते हुए कहा कि यह न्यायिक स्वतंत्रता के दो केंद्रीय पहलुओं, निर्णय लेने में स्वतंत्रता और संस्थागत स्वतंत्रता का उदाहरण है।

उन्होंने कहा, ‘‘तेरह न्यायाधीश अपनी दलीलों को लेकर स्वतंत्र थे, फिर भी वे न्याय की एक स्वतंत्र संस्था के रूप में एकजुट थे और राष्ट्रीय एकता के भीतर बहुलवादी आवाजों को प्रतिबिंबित करने की संविधान की क्षमता के प्रति प्रतिबद्ध थे।’’ न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा, ‘‘न्यायिक स्वतंत्रता तब सुरक्षित रहती है जब न्यायालय किसी भी पूर्वाग्रह से मुक्त होकर तर्क, तार्किकता और पूछताछ का मंच बना रहता है। मूल संरचना सिद्धांत इसी बहुलवाद से निकला है।’’ शीर्ष अदालत की न्यायाधीश ने कहा कि संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता को न्यायाधीशों के विशेषाधिकार से अधिक नागरिकों का अधिकार माना था। उन्होंने कहा कि इस अधिकार का निरंतर संरक्षण कानून के शासन के संरक्षण की गारंटी देता है।

न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा कि एक न्यायाधीश का आचरण केवल विधिसम्मत से अधिक होना चाहिए तथा न्यायिक विचार और आचरण की स्वतंत्रता न केवल मौजूद होनी चाहिए, बल्कि जनता द्वारा भी संदेह से परे समझी जानी चाहिए। उन्होंने कहा, ‘‘यह हमारा कर्तव्य है और हमें इसका पालन करना होगा।’’ न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा कि स्वतंत्रता की रक्षा इस बात से नहीं होती कि हम अपने निर्णयों में क्या कहते हैं या अपने बचाव में क्या कहते हैं, बल्कि इस बात से होती है कि हम अपने निजी आचरण में क्या करने से इनकार करते हैं।

उन्होंने जोर देकर कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए राजनीतिक अलगाव महत्वपूर्ण है। न्यायमूर्ति नगरत्ना ने कहा, ‘‘न्यायिक स्वतंत्रता की सामान्य परिभाषा तैयार करते समय, अधिकांश विद्वानों ने निष्पक्षता और एकाकीपन पर बहुत ज़ोर दिया है। निष्पक्षता को न्यायाधीशों के दृष्टिकोण और विश्वासों के साथ-साथ विशिष्ट राजनीतिक और सामाजिक कर्ताओं के प्रति उनके व्यवहार से भी संबंधित माना जा सकता है।’’ उन्होंने कहा कि दूसरी ओर, अलगाव इस धारणा से संबंधित है कि न्यायालयों को राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति का आधार नहीं बनना चाहिए।

न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा कि तीसरा घटक व्यापक राजनीतिक व्यवस्था के भीतर न्यायालयों की स्थिति और सरकार की अन्य शाखाओं के साथ उनके कार्यात्मक संबंध पर जोर देता है। उन्होंने कहा, ‘‘कानून का शासन स्थिरता पर निर्भर करता है और भविष्य की ओर बढ़ते हुए अतीत का सम्मान करने के लिए संस्थागत प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है।’’ न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा, ‘‘न्यायिक स्वतंत्रता अंततः उन न्यायाधीशों का दृढ़ विश्वास, साहस और स्वतंत्रता है जो न्यायालय के समक्ष मामलों का निर्णय करते हैं। न्यायपालिका के लिए, इसका अर्थ है कि स्वतंत्रता केवल संस्थागत नहीं है। यह बौद्धिक और नैतिक है: तर्क करने की स्वतंत्रता, सुनने की विनम्रता, और विमर्श में योगदान देने का कर्तव्य, खासकर जब न्यायालय को कठिन प्रश्नों से निपटना हो।’’

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